Friday, May 25, 2007

गान्धी परिवार का करिश्मा



रात के अन्धेरे में ढूंढिये
गान्धी परिवार का करिश्मा - शायद मिल जाये!



-अम्बा चरण वशिष्ठ

कांग्रेस भी कुछ अजीब कहानी है। 1971-72 में जब संसद और विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की ज़बरदस्त जीत हुई थी तो सब एक ही स्वर में पुकार उठे थे - यह तो इन्दिराजी के व्यक्तित्व का चमत्कार है। जब 1985 में लोक सभा और बाद में कुछ विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय हुई तो किसी ने नहीं कहा कि यह तो इन्दिराजी की निर्मम हत्या के प्रति जनता का प्रतिकार है। सब ने कहा यह तो राजीवजी का करिश्मा है।

बहुत से लोग इस बात को नज़रअन्दाज़ करने की प्रवृति में रहते हैं कि जब पहली बार कांग्रेस का संसद व राज्य विधान सभा चुनावों में सफाया हो गया था उस के पीछे भी तो इन्दिराजी व उनका करिश्मा व कारनामे ही थे। साथ ही यह भी सत्य है कि दोबारा कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सत्ता में लाने का श्रेय भी उनके ही माथे पर है।

पर आज कांग्रेस में नई किस्म का ढोंग सिर चढ़ कर बोल रहा है। यदि कहीं कांग्रेस जीत जाती है तो संगठन और कार्यकर्ता को भुला दिया जाता है जिसने दिन-रात एक कर परिश्रम किया। तब इसे मात्र सोनियाजी की जीत की संज्ञा दे दी जाती है। यदि हार होती है तो याद आता है संगठन और कार्यकर्ता जिसके सिर पर हार का ठीकरा फोड़ दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार आजकल की कांग्रेस में ''चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी'' ('जीत गये तो जीती सोनियाजी, हार गये तो हारा संगठन) की तरज़ पर काम हो रहा है।

अभी हाल में सम्पन्न हुये उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की हालत पहले से भी बदतर होकर निकली हालांकि कांग्रेस के गांधी शासक परिवार के सभी सदस्य पूरी जी-जान से जुटे रहे। कांग्रेस परिवार में सत्ता के 'राजकुमार' राहुल गांधी को बड़े धूम-धमाके से उत्तर प्रदेश चुनाव में उतारा गया था। तब कहा गया कि यह उनका प्रदेश और राष्ट्र की राजनीति में धमाकेदार छलांग होगी। उन्होंने बड़े धूम-धड़ाके से प्रदेश की जनता को लगभग 40 दिन अपना 'रोड शो' दिखाकर रोमांचित और मनोरंजित तो अवश्य किया लेकिन वोट से कांग्रेस के बक्से नहीं भर सके और मतगणना के दिन खाली के खाली ही निकले।
यह भी सर्वविदित है अभी तक राहुल गांधी के पास संगठन या सरकार का कोई पद नहीं है। फिर भी उप्र चुनाव से पूर्व उन्होंने पार्टी चुनाव रणनीति की कमान स्वयं सम्भाल ली थी और संगठन व सरकार के बड़े-बड़े नेता व मन्त्री उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने केलिये उनके चक्कर लगा रहे थे। कांग्रेस टिकट वितरण में भी उनकी अहम् भूमिका रही।

जब चुनाव परिणामों की समीक्षा हुई तो लम्बे-चौड़े सोच-विचार उपरान्त पार्टी इसी निष्कर्ष पर पहुंची कि इस हार केलिये सोनियाजी व राहुलजी नहीं मात्र संगठन, संगठनात्मक ढांचा तथा संगठन की कमज़ोरियां ही जिम्मेवार हैं।

इस देश में मेरे जैसे नासमझ लोग बहुमत से हैं जो समझते हैं कि श्रीमति सोनिया गांधी का स्थान ब्रिटेन की साम्राज्ञी समान नहीं है कि सरकार में कुछ भी हो वह कभी भी किसी भी सूरत में जिम्मेदार नहीं होतीं। महारानी तो यह भी नहीं करतीं कि सारा यश बटोरकर स्वयं अपने मुकट पर सजा लें और दोष प्रधान मन्त्री के माथे मढ़ दें । वह यश-अपयश के पचड़े से कहीं ऊपर हैं।

ऐसा लगता है कि श्रीमति गांधी अपने आपको, अपने कांग्रेस संगठन, संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन और उसकी सरकार को चार अलग-अलग इकाईयां मानती हैं। वरन् वह यह कैसे स्वीकार कर सकती थीं कि उप्र की हार केलिये वह स्वयं नहीं संगठन उत्तरदायी है? क्या संगठन की प्रधान व कर्ताधर्ता वह स्वयं नहीं हैं? संगठन को चुनाव केलिये चुस्त-दुरस्त बनाना कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में क्या श्रीमति गांधी का उत्तरदायित्व नहीं है? क्या कांग्रेस अध्यक्ष और श्रीमति गांधी दो अलग व्यक्ति हैं? क्या चुनाव हार केलिये कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वह स्वयं उत्तरदायी नहीं हैं? यदि नहीं तो फिर जीत का श्रेय वह किस मुंह से अपने सिर बान्ध लेती हैं?

देश में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार है। प्रधान मन्त्री कांग्रेस के हैं। वित्त मन्त्री कांग्रेस के हैं, अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक मन्त्रालय कांग्रेस के पास हैं। उस से ऊपर संप्रग की अध्यक्ष भी स्वयं सोनियाजी ही हैं। एक ओर तो वह मनमोहन सरकार की कारगुज़ारी पर उन्हें दस में से दस अंक देती फिरती है और दूसरी ओर फरमाती हैं कि सरकार कीमतों पर नियन्त्रण कर पाने में विफल रही है। सरकार की वह कई अन्य विफलतायें भी गिनाती हैं। कई बार स्वयं बात न कर प्रधान मन्त्री को विभिन्न विषयों पर पत्र लिखने की चर्चा समाचार माध्यमों में करवाती हैं। मानों प्रधान मन्त्री उनकी अलिखित बात पर कोई ध्यान नहीं देते। सरकार की असफलताओं केलिये कांग्रेस व संप्रग की अध्यक्ष के रूप में वह अपने आपको उत्तरदायित्व से किस प्रकार दूर रख सकती हैं? वह चाहे स्वयं अपने मुंह से न बोलें पर सत्य तो यही है कि कांग्रेस संगठन में तो उनकी औपचारिक या अनौपचारिक स्वीकृति के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता।

पिछले कुछ चुनाव परिणामों से तो यह स्पष्ट हो गया है कि कांग्रेस संगठन पर छाये गांधी परिवार के पास करिश्मा नाम की कोई चीज़ न पहले कभी थी और न अब है। हवा के रूख के साथ और उफनती लहरों के सहारे बहकर तो सभी किनारे लग जाते हैं। पर वह तो बिरले ही लोग होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी हवा के रूख को बदल कर रख देते हैं और उफनती लहरों को चीर कर अपने मनतवय की ओर बढ़ते जाते हैं। आखिर गांन्धी परिवार ने कब विपरीत हवा व लहर का रूख बदला है?

आवश्यकता अब यही है कि हम खुली आंख से देखें, खुले कान से सुने और खुले दिमाग़ से सोचें। गान्धी परिवार का करिश्मा दिन में तो दिखता नहीं। रात के अन्धेरे में ढूंढें तो शायद कहीं टकर जाये। यही अन्तिम आशा है।

कार्टून साभार- The Hindu